मां को गुजारा भत्ता दिए जाने के आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट गया बेटा, कोर्ट ने कहा-
बिलासपुर। पति की मौत के बाद मां ने बेटे से गुजारा भत्ते के लिए फैमिली कोर्ट में अर्जी लगाई, जहां बेटे को हर माह 15 हजार रुपए गुजारा भता देने के आदेश दिया गया था, बेटे ने इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. मामले की सुनवाई के बाद जस्टिस नरेंद्र कुमार व्यास की बेंच ने बेटे की याचिका खारिज कर दी है. कोर्ट ने कहा कि माता-पिता की वजह से ही उसने यह खूबसूरत दुनिया देखी है. वृद्धा मां को गुजारा भत्ते से वंचित करना कानून ही नहीं, नैतिकता के भी खिलाफ होगा.
दरअसल, जगदलपुर में रहने वाली सुनीला मंडल के पति एसपी मंडल राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) के कर्मचारी थे. जो वर्ष 2007 में रिटायर हुए. एनएमडीसी की नीति के मुताबिक उन्हें 4 हजार रुपए पेंशन मिल रहा था. वर्ष 2017 में उनकी मौत हो गई. इसके बाद सुनीला मंडल को आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा. उनके दोनों बेटे उनकी देखभाल नहीं कर रहे थे. दो साल तक परेशान होने के बाद वर्ष 2019 में जगदलपुर के फैमिली कोर्ट में उन्होंने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत आवेदन लगाया, और बड़े बेटे संजय कुमार मंडल को गुजारा भत्ता देने के निर्देश देने की मांग की.
उन्होंने कोर्ट को दिए अपने आवेदन में बताया, कि वे गृहिणी हैं. वर्तमान में पति द्वारा बनवाए गए मकान में रह रही हैं. बड़ा बेटा 2008-09 से एनएमडीसी में काम कर रहा है, और छोटा बेटा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, तोकापाल में रेडियोग्राफर है. उनके पास आय का कोई साधन नहीं है, जिसकी वजह से उन्हें अपनी देखभाल, इलाज आदि के लिए आर्थिक परेशानी उठानी पड़ रही है.
मामले की सुनवाई के बाद फैमिली कोर्ट ने मां की अर्जी मंजूर करते हुए हर माह 15 हजार रुपए देने के आदेश दिए थे. जिस पर बेटे ने हाई कोर्ट में पहले पुनरीक्षण अर्जी लगाकर बताया कि उसे हर माह 55 हजार रुपए सैलरी मिलती है. जिसमें से कार लोन के लिए 9 हजार, होम लोन के 14 हजार, बीमा के लिए 20 हजार रुपए देने पड़ते हैं. हाई कोर्ट ने मामले की सुनवाई के बाद फरवरी 2020 को सीआरपीसी की धारा 127 के तहत आवेदन पेश करने की छूट देते हुए इसे निराकृत कर दिया था. इसके बाद बेटे ने हाई कोर्ट में याचिका लगाई थी. जिस पर सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने बेटे की याचिका खारिज कर दी.
कोर्ट ने कहा है कि बेटा किसी भी तरह के विचार के आधार पर वैधानिक दायित्व से छूट नहीं मांग सकता. बेटे की यह सोच घरों की ढहाने, मूल्यों को कमजोर करने, परिवारों को खत्म करने और हमारी भारतीय संस्कृति की नींव को तोड़ने का काम करेगा. कंप्यूटर युग में यह निराशा और विनाश का संदेश है, जिसमें आशा का एक भी शब्द नहीं है. माता-पिता बच्चे को नाम, स्थान, सामाजिक, राष्ट्रीय और धार्मिक पहचान देते हैं. बच्चे को उस समाज से जोड़ते हैं जिसमें वह रहेगा, बड़ा होगा।